इस देश के अंग्रेजी के अधिकतर समाचार पत्र और कई दूरदर्शन चैनल घोर-हिन्दू विरोधी हैं। हिन्दू-विरोध उनकी पहचान है, उनका रेजन-डेटर याने उनके अस्तित्व का कारण है, उनका मिशन है और हिन्दू-विरोध ही उनकी रोजी-रोटी है। इसमें इनका कोई दोष भी नहीं है। इन अखबारों-चैनलों में काम करने वाले लोग, संवाददाता, सम्पादक आदि मिशन स्कूलों में पढ़े हुए हैं, जहाँ हिन्दू-विरोध इनमें कूट-कूट कर भरा गया। पश्चिमी संस्कारों में पलने-बढ़ने के कारण ये अपनी जड़ों से बिल्कुल ही कट गये हैं। त्रिशंकु की तरह ये आसमान में उलटे लटके हुए हैं और इसलिये हिन्दू-विरोध उनकी नियति बन गई है।
‘मिताकुये ओयासिन’ मूल अमरीकियों की एक कहावत है। इसका अर्थ है- हम सब आपस में जुड़े हैं। कितना अंतर है अमरीका के मूल निवासियों और वर्तमान निवासियों की सोच में। ईसाईयत केवल ईसा को मानने वालों को जुड़ा हुआ और शेष को पापी या नर्कगामी मानती है, जब कि ईसाईयत से पहले के अमरीकी पूरी दुनिया को बन्धु मानते हैं। आश्चर्य यह है, कि इतने बड़े सोच वालों को अमरीका में आदि-वासी या गँवार माना जाता है, जबकि संकुचित दृष्टिकोण वाले लोगों को आधुनिक और प्रगतिशील कहा जाता है। केवल अमरीका ही नहीं, यूरोप, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया आदि में भी ईसाइयत के पहले के समाजों को ‘पेगन’,पिछड़ा या आदिवासी माना जाता है। इन पेगन, प्रकृतिपूजक या यूरोप के आदिवासियों का जीवन-दर्शन अत्यंत उच्च कोटि का है।
भैय्या जी जोशी पुनः सरकार्यवाह निर्वाचित
एक भाव, एक संकल्प लिये जहाँ स्थान-स्थान से लोग एकत्र होते हैं, उसे अपने देश में तीर्थ-स्थल माना जाता है। नागपुर भी ऐसा ही एक तीर्थ बन गया है। यहाँ सम्पूर्ण देश के कोने-कोने से समान विचार, समान श्रद्धा और समान समर्पण का भाव लिये लोग एकत्रित होते हैं। पहला अवसर होता है संघ के तृतीय वर्ष के शिक्षण का, जब चुने हुए कार्यकर्ता नागपुर के रेशिम बाग स्थित डा. हेडगेवार स्मृति मंदिर में इकट्ठे होते हैं, पचीस दिनों तक एक साथ रहते हैं,
ईसाईयत का उदय आज से दो हजार साल पहले हुआ। इसके पहले पश्चिमी एशिया में पारसी और यहूदी थे। इन सेमेटिक मज़हबों के पहले विश्व में अनेक उपासना-पद्धतियाँ थीं। यूरोप में अग्नि-पूजक थे, उत्तरी और दक्षिणी अमरीका में माया और इंका लोग भी प्रकृति की विविध रूपों में पूजा करते थे। अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड आदि में भी कई मज़हब फले-फूले। ईसाई पंथ के प्रचारकों ने बर्बरता से इन प्राचीन सभ्यताओं और सम्प्रदायों का विनाश किया। फिर भी ऐसे सभी देशों में मूल-सिद्धान्तों और पंथों को मानने वालों का एक समूह बना रहा। ऐसे समूहों को ईसाई पादरी जंगली, आदिवासी और रेड-इंडियन जैसे नाम दे कर दुत्कारते रहे, फिर भी बड़ी संख्या के इन समूहों ने अपनी मूल संस्कृति को बचाये रखा। ये सभी संस्कृतियाँ हिन्दू धर्म और संस्कृति से प्रभावित थीं।
दुनिया के महान विजेताओं में थे राजेन्द्र चोल
कृण्वन्तो विश्वमार्यम् तथा स्वदेशो भुवनत्रयम्-अर्थात् समूचे विश्व को आर्य याने श्रेष्ठ बनायेंगे और तीनों लोक अपना ही देश हैं, ये मंत्र प्रारम्भ से ही भारतवासियों को पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देते रहे। सारी दुनिया को श्रेष्ठ बनाने के उद्देश्य से हमारे देश-बान्धव सहस्रों वर्षों तक विश्व के देशों में जाते रहे और वहाँ ‘हिन्दू संस्कृति’का जन-कल्याण का संदेश देते रहे। इनमें से कुछ श्रेष्ठ पुरुष ऐसे थे जिन्होंने प्रयत्नों की पराकाष्ठा कर दी और भारतीय संस्कृति का अमिट प्रभाव दुनिया पर छोड़ा।